मृदा की समस्याएँ से संबंधित सभी प्रश्न जो की प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं वे सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए लाभकारी होगा जैसे UPSC, UPPSC, MPPCS, UKPCS,BPSC,UPPCS,UP POLICE CONSTABLE, UPSI,DELHI POLICE, MP POLICE, BIHAR POLICE, SSC, RAILWAY, BANK, POLICE,RAILWAY NTPC,RAILWAY RPF,RAILWAY GROUP D,RAILWAY JE,RAILWAY TECNICIAN, Teaching Bharti अन्य सभी परीक्षाओं के लिए उपयोगी
■ मृदा की समस्याएँ——->
● देश की मिट्टी निम्न समस्याओं के दौर से गुजर रही है-
1. मृदा अपरदन
2. जल जमाव
3. अम्लीयता, लवणीयता एवं क्षारीयता
4. बंजर भूमि की समस्या
5. मरूस्थलीकरण
6. मानव द्वारा भूमि का अत्यधिक शोषण
■ मृदा अपरदन (Soil Erosion)——-
● मृदा क्षेत्र में वनस्पति के अभाव के कारण कृत्रिम अथवा प्राकृतिक कारकों द्वारा मिट्टी का खण्डित होना या टूट-टूट कर गिरना अथवा पानी द्वारा बह जाना मृदा अपरदन कहलाता है।
● यह प्राकृतिक कारकों जैसे जल, पवन, हिमानी और जल की लहरों द्वारा घटित होता है।
इस प्रकार मृदा के ऊपरी परत के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन (Soil Erosion) कहा जाता है।
● धरातल से सूक्ष्म कणों के हटने की दर वही होती है जो मिट्टी की परत में कणों के जुड़ने की होती है। |
● मृदा अपरदन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, किंतु अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियों के कारण विशेष रूप से तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों में मिट्टी की ढीली व हल्की परतें होने से मृदा अपरदन की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है।
● जल और वनों की अपरदनात्मक प्रक्रियाएँ तथा मृदा निर्माणकारी प्रक्रियाएँ साथ-साथ घटित होती हैं। सामान्यतः इन दोनों प्रक्रियाओं में एक संतुलन बना रहता है।
● गुरुत्वबल के कारण पहाड़ी ढलानों पर मृदा नीचे की ओर धीरे-धीरे गतिमान होती है, जिसे मृदा सर्पण (Soil Creep) कहते हैं अथवा यह भूस्खलन द्वारा तीव्र गति से नीचे आ सकती है।
● कई बार प्राकृतिक अथवा मानवीय कारकों से यह संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे मृदा के अपरदन की दर बढ़ जाती है।
● मृदा अपरदन की भयावहता एवं उसके फैलाव को कई भौतिक एवं सामाजिक कारक निर्धारित करते हैं- ● प्रमुख भौतिक कारक : वर्षा की अपरदनकारी शक्ति, मृदा की अपनी कटाव क्षमता, आवर्ती बाढ़ों की तीव्रता, ढलान की लम्बाई और तीव्रता । ● प्रमुख सामाजिक कारक : वनों की कटाई, अतिचराई, भूमि उपयोग की प्रकृति और खेती करने की विधियाँ। |
● मृदा अपरदन भारत की एक सार्वभौमिक समस्या है। मृदा अपरदन मुख्यतः वनस्पतिहीन एवं ढालू क्षेत्रों में अधिक होता है।
● भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में अपरदन का कारक जल है और शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में इसका कारक वायु है। |
● मृदा अपरदन प्राकृतिक कारकों का ही नहीं अपितु मानवीय क्रियाकलापों का भी परिणाम होता है। मृदा अपरदन के लिए मानवीय गतिविधियाँ भी काफी हद तक उत्तरदायी हैं। जनसंख्या बढ़ने के साथ भूमि की माँग भी बढ़ने लगती है।
● मानव बस्तियों, कृषि, पशुचारण तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन तथा अन्य प्राकृतिक वनस्पति नष्ट कर दी जाती हैं। शुष्क व पर्वतीय क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या अतिगंभीर है, जिसका मुख्य कारण वनों का कटाव और कृषि के अवैज्ञानिक तरीके हैं।
● वनोन्मूलन, मृदा अपरदन के प्रमुख कारणों में से एक है। पौधों की जड़ें मृदा को बाँधे रखकर अपरदन को रोकती हैं एवं पत्तियाँ और टहनियाँ गिराकर वे मृदा में ह्यूमस की मात्रा में वृद्धि करते हैं।
● भारत के जिन क्षेत्रों में वनोन्मूलन या वनस्पतियों का विनाश किया गया है, वहाँ मृदा अपरदन अत्यधिक तीव्र है।
● संपूर्ण भारत में वनों का विनाश हुआ है लेकिन मृदा अपरदन पर इसका प्रभाव देश के पहाड़ी भागों में अधिक पड़ा है।
● यह समस्या नदी घाटी परियोजनाओं के उन सभी समावेशी क्षेत्रों (Command Area) में अधिक है, जो हरित क्रांति के आरंभिक लाभार्थी थे।
● किसी स्थान पर कई वर्षों तक लगातार एक ही फसल के बोने से वहाँ की मृदा में कुछ विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
● फसल चक्र (Crop Rotation) फसलों को बदल-बदल कर बोने से मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है। साथ ही यह कीट नियंत्रण में भी मदद करता है।
● भूमि अपरदन के गंभीर एवं अत्यन्त स्पष्ट रूप खड्ड, अवनालिकाएँ और भूस्खलन हैं। वर्षा तथा पवन द्वारा किया गया परत-अपरदन यद्यपि स्पष्ट रूप से बहुत कम दिखाई देते हैं परन्तु ये भी इतने ही गंभीर हैं क्योंकि, उनके द्वारा भारी मात्रा में मृदा की बहुमूल्य ऊपरी परत नष्ट हो जाती है।
■ खड्डों और अवनालिकाओं के चार प्रमुख क्षेत्र——->
● यमुना-चम्बल खड्ड क्षेत्र
● गुजरात खड्ड क्षेत्र
● पंजाब शिवालिक गिरिपाद क्षेत्र
● छोटा नागपुर क्षेत्र
■ खड्ड अपरदन के उदाहरण——->
● महानदी की घाटी
● उपरी सोन घाटी
● ऊपरी नर्मदा
● तापी की घाटियाँ
● शिवालिक
● पश्चिमी हिमालय के गिरिपाद वाली भाबर भूमि
● पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंगा-खादर के सीमान्त क्षेत्र
● खड्ड और अवनालिका अपरदन से सबसे कम प्रभावित क्षेत्रों में गोदावरी के दक्षिण में पूर्व दक्कन क्षेत्र, गंगा ब्रह्मपुत्र के मैदान, कच्छ और पश्चिमी राजस्थान आते हैं।
● ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के समानांतर हल चलाने से ढाल के साथ जल बहाव की गति घटती है। इसे समोच्च जुताई (Contour Ploughing) कहा जाता है।
■ मृदा अपरदन के कारक——->
● पवन (Wind)
● जल (Water)
● समुद्री लहरें (Ocean Waves)
■ पवन अपरदन (Wind Erosion)——->
● पवन द्वारा मैदान अथवा ढालू क्षेत्र से मृदा को उड़ा ले जाने की प्रक्रिया को पवन अपरदन कहा जाता है। पवन द्वारा अपरदन शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में अधिक होता है।
● शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में तापक्रम ऊँचा रहता है, वायु का वेग अधिक होता है, मृदा शुष्क एवं मोटे कणों वाली होती है, मृदा में कार्बनिक पदार्थों का अभाव होता है, वहाँ पर वानस्पतिक आवरण नहीं पाया जाता है। इसलिए ऐसे क्षेत्रों में मृदा का अपरदन अधिक होता है।
● राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और गुजरात के शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पवन अपरदन की समस्या है। देश का 17.7 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पवन अपरदन के कारण बंजर हो रहा है।
■ जल अपरदन (Water Erosion)——->
● जल द्वारा अपरदन अपेक्षाकृत अधिक गंभीर है और यह भारत के विस्तृत क्षेत्रों में हो रहा है। भारी वर्षा और खड़ी ढालों वाले प्रदेशों में बहते जल द्वारा किया गया अपरदन हानिकारक होता है।
● जब वर्षा का जल भूमि पर प्रहार करता है तब मृदा के कण ढीले होकर अपने स्थान से छिटककर जल के प्रवाह के साथ बह जाते हैं।
● जल अपरदन की प्रक्रिया मृदा के प्रकार, भूमि के ढाल, वनस्पति, वर्षा की प्रचण्डता तथा अवधि पर निर्भर करती है। भारत में जल द्वारा मृदा अपरदन सर्वाधिक प्रभावशाली है।
■ जलीय अपरदन——->
● बूंद अपरदन
● परत अपरदन
● रिल अपरदन
● अवनालिका अपरदन
■ बूँद अपरदन———->
● जब असंगठित मृदा के कणों पर वर्षा की बूँदें पड़ती हैं तो उनके प्रहार से होने वाले अपरदन को बूँद अपरदन कहते हैं।
■ परत अपरदन——->
● मृदा की ऊपरी परत के अनाच्छादन (अपक्षय व अपरदन) को परत अपरदन (Sheet Erosion) कहते हैं, यह समतल भूमियों पर
● मूसलाधार वर्षा के बाद होता है। इसमें मृदा का हटना आसानी से दिखाई भी नहीं देता, किन्तु यह अधिक हानिकारक है, क्योंकि इससे मिट्टी की सूक्ष्म और अधिक उर्वर ऊपरी परत हट जाती है।
● कई बार जल विस्तृत क्षेत्र को ढके हुए ढाल के साथ नीचे की ओर बहता है। ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र की ऊपरी मृदा घुलकर जल के साथ बह जाती है। इसे परत अपरदन (Sheet Erosion) भी कहा जाता है।
■ रिल अपरदन——->
● जब मूसलाधार वर्षा के कारण मृदा की कमजोर परत का अपरदन हो जाता है तो वर्षा की बूँदें मृदा की अपेक्षाकृत कठोर परत में पतली-पतली नालियाँ बनाने लगती हैं, जिसे रिल अपरदन कहा जाता है।
■ अवनालिका अपरदन——->
● बहता जल मृत्तिकायुक्त मृदाओं को काटते हुए गहरी वाहिकाएँ बनाता है, जिन्हें अवनालिकाएँ कहते हैं। यह सामान्यतः तीव्र ढालों पर होता है।
● यदि जल के बहाव के पश्चात् अपरदन के दौरान अवनालिकाओं का निर्माण होता है, तो इसे अवनालिका अपरदन कहते हैं।
● चंबल बेसिन में ऐसी भूमि को खड्ड भूमि (Ravine) कहा जाता है। भारत में खड्डों और अवनालिकाओं द्वारा हुए मृदा के अपरदन से 36.7 लाख हेक्टेयर भूमि को नुकसान हुआ है।
● अवनालिका अपरदन का निर्माण विस्तृत और देर तक चलने वाले क्षुद्र सरिता अपरदन (Rill Erosion) के उपरांत होता है। यह मृदा की सबसे द्रुत और क्षति पहुँचाने वाली स्थिति है, जो मृदा को कृषि कार्य के लिए पूरी तरह अनुपयुक्त बनाती है।
● जिस प्रदेश में अवनालिकाएँ अथवा बीहड़ अधिक संख्या में होते हैं, उसे उत्खात भूमि (Bad Land) कहा जाता है।
● भारत के मृदा अपरदन मानचित्र को देखने से यह स्पष्ट होता है कि चम्बल घाटी क्षेत्र (मध्य प्रदेश के मुरैना, भिंड एवं ग्वालियर जिले) में खोह-खड्डों या उत्खात भूमि (Bad Land) का निर्माण अवनालिका अपरदन (Gully Erosion) के कारण हुआ है। राजस्थान और उत्तर प्रदेश में भी इसके विशिष्ट क्षेत्र पाए जाते हैं।
● वर्षा से गहरी हुई अवनालिकाएँ कृषि भूमियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित कर देती हैं, जिससे वे कृषि के लिए अनुपयुक्त हो जाती हैं। ऐसी भूमि जोतने योग्य नहीं रहती है। देश की लगभग 8,000 हेक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष बीहड़ में परिवर्तित हो जाती है।
● अवनालिका अपरदन को नियंत्रित करने के लिए गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। अंगुल्याकार अवनालिकाओं को सीढ़ीदार खेत बनाकर समाप्त किया जा सकता है। बड़ी अवनालिकाओं में जल की अपरदनात्मक तीव्रता को कम करने के लिए प्रतिरोधी बाँधों की एक श्रृंखला बनानी चाहिए।
● अवनालिकाओं के शीर्ष की ओर फैलाव को नियंत्रित करने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यह कार्य अवनालिकाओं को बंद करके, सीढ़ीदार खेत बनाकर अथवा आवरण वनस्पति का रोपण करके किया जा सकता है।
■ जल अपरदन से प्रभावित क्षेत्र——–>
● शिवालिक एवं हिमालय पर्वत, (मुख्यतः मध्य एवं पूर्वी भाग में)
● यमुना एवं चम्बल नदी की घाटी
● उत्तरी-पूर्वी भारत
● उत्तर प्रदेश का ब्रज भूमि क्षेत्र
● पश्चिमी घाट का पर्वतीय क्षेत्र
● तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल के कुछ क्षेत्र
■ मृदा अपरदन के कारण——->
● तीव्र एवं मूसलाधार वर्षा
● तीव्र वायु
● भूमि का तीव्र ढाल
● मिट्टी का हल्कापन
● वनों की कटाई
● अतिचारण
● झूम कृषि
● अवैज्ञानिक कृषि, जैसे- ढाल के समानांतर खेत की जुताई न करना, फसल चक्र न अपनाना, अत्यधिक सिंचाई एवं उर्वरक का प्रयोग आदि।
● ढाँचागत कार्य जैसे खनिजों की खुदाई, सड़क, बाँध आदि का निर्माण।
■ मृदा अपरदन का प्रभाव——->
● ऊपरी उपजाऊ मिट्टी के आवरण की क्षति से धीरे-धीरे मृदा-उर्वरता और कृषि उत्पादकता घटती जाती है। कृषि योग्य भूमि कम होती जाती है।
● आप्लावन और निक्षालन से मिट्टी के पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं।
● भौम जल स्तर और मृदा-आर्द्रता में गिरावट देखी जाती है।
● वनस्पति के सूखने से मरूस्थल क्षेत्र का विस्तार होता है।
● सूखा और बाढ़ का प्रकोप बढ़ जाता है।
● नदियों और नहरों के तल में रेत का जमाव बढ़ जाता है।
● भूस्खलन के खतरे बढ़ जाते हैं।
● आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
● अपराधियों और आतंकवादियों के लिए प्राकृतिक शरण स्थल बन जाने से शांति और जनजीवन प्रभावित होता है।
● वानस्पतिक आवरण नष्ट होने से इमारती और ईंधन की लकड़ी की कमी होने लगती है और वन्य जीवन दुष्प्रभावित होता है।
■ मृदा अपरदन से प्रभावित क्षेत्र———>
● चंबल एवं यमुना नदियों द्वारा निर्मित उत्खात भूमि क्षेत्रण
● पश्चिमी हिमालय का गिरिपदीय क्षेत्र (शिवालिक पहाड़ियों के दक्षिणी ढाल, लघु एवं वृहत् हिमालय इसमें शामिल हैं।)
● पश्चिमी घाट एवं पूर्वी घाट
● छोटा नागपुर का पठार
● ताप्ती (तापी) से साबरमती घाटी तक का क्षेत्र (मालवा पठार आदि)
● महाराष्ट्र का काली मिट्टी वाला क्षेत्र।
● हरियाणा, राजस्थान, गुजरात एवं पंजाब के शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्र।
● भारत में मृदा अपरदन से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र राजस्थान है। इसके पश्चात् क्रमशः मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक है। |
■ मृदा अपरदन को रोकने के उपाय——->
● वृक्षारोपण, विशेषकर-पहाड़ी ढालों, बंजर भूमि एवं नदियों के किनारे।
● अतिचारण (Over Grazing) को नियंत्रित करना।
● फसल चक्र (Crop Rotaion) की कृषि पद्धति को अपनाना।
● जल के तीव्र वेग को रोकने के लिए मेड़बन्दी करना।
● समोच्च रेखीय (Contour) एवं ढाल के समानांतर जुताई करना।
● ऊबड़-खाबड़ भूमि को समतल करना।
● स्थानांतरित या झूम कृषि पर रोक लगाना।
● पट्टीदार कृषि अपनाना।
● कृषिगत भूमि को कम से कम समय के लिए परती (Fallow) एवं खुला हुआ छोड़ना। भूमि को वनस्पतियों, पुआल आदि के आवरण से ढक कर रखना (Mulching), ताकि मृदा में नमी बनी रहे।
● समुचित उर्वरक एवं सिंचाई द्वारा मृदा की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखना साथ ही जैविक कृषि को प्रोत्साहन देना।
■ बंजर भूमि सुधार से संबद्ध संस्थान——->
1. स्पेस अप्लीकेशन सेन्टर—–> अहमदाबाद 2. नेशनल रिमोट सेन्सिंग एजेन्सी—–> हैदराबाद 3. सेन्टर ऑफ स्टडीज इन रिसोर्स इंजीनियरिंग—–>मुंबई 4. निस्टैड्स ऑफ काउन्सिल ऑफ साइन्टिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च—–> दिल्ली |
■ जल जमाव (Water-Logging)——->
● किसी क्षेत्र को जल जमाव क्षेत्र तब मानते हैं, जब उस क्षेत्र का जल स्तर उस हद तक बढ़ गया हो कि फसलों की जड़ों के मृदा रंध्र संतृप्त हो जाते हैं। इस स्थिति के उत्पन्न होने के फलस्वरूप मृदा में हवा का सामान्य चक्र बाधित होता है तथा इससे ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ने लगती है।
■ जल जमाव के मुख्य कारण—–>
1. नहरों से जल का रिसाव 2. कृषि जल का अनुचित प्रबंधन 3. जल निकास की कमी 4. जल के प्राकृतिक निकास से छेड़छाड़ 5. निकास नहरों के तट पर गलत तरीके से की जाने वाली खेती 6. समुद्री डेल्टा क्षेत्र में बदलाव 7. तटीय क्षेत्रों में चक्रवाती लहरों में परिवर्तन । |
● इंदिरा गांधी नहर (राजस्थान) एवं पंजाब की नहरों के निकटवर्ती क्षेत्र, हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्यों में कृषिगत भूमि का एक बहुत बड़ा भाग जल-जमाव की समस्या से ग्रस्त है।
● अपवाह तंत्र की उपयुक्त व्यवस्था और रिसाव को कम करने के लिए नहरों के अस्तरण (Lining) द्वारा जल जमाव से प्रभावित क्षेत्रों को कृषि कार्यों के लिए पुनः उपयुक्त बनाया जा सकता है।
■ लवणीयता एवं क्षारीयता (Salinity and Alkalinity)——->
● लवणता और क्षारीयता भारतीय मृदाओं की दूसरी प्रमुख समस्या है।
● मृदाओं में लवणीयता एवं क्षारीयता (Salinity and Alkalinity) की समस्या उन क्षेत्रों में होती है, जहाँ वर्षा अपेक्षाकृत कम होती है तथा वाष्पीकरण की दर-वर्षण दर से अधिक होती है।
● ऐसी स्थिति में केशिका क्रिया (Capillary Action) द्वारा मृदा में ऐसी स्थिति में केशिका क्रिया (Capillary Action) द्वारा मृदा में विद्यमान सोडियम, कैल्शियम और मैंगनीज के लवणीय और क्षारीय लवणों का ऊपर की ओर आकर्षण होता है
● वे मृदा की ऊपरी सतह पर एक सफेद परत के रूप में बिछ जाते हैं और मिट्टी ऊसर में बदल जाती है।
● देश का लगभग 80 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र (2.43%) इस समस्या से ग्रसित है।
● यह समस्या पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के नहर सिंचित क्षेत्रों, राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक के अर्द्धशुष्क तथा पूर्वी और पश्चिमी तटीय भागों में गम्भीर रूप लेती जा रही है।
■ मृदा अवकर्षण (Soil Degradation)——->
● मृदा अवकर्षण को मृदा की उर्वरता के ह्रास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें मृदा का पोषण स्तर गिर जाता है तथा अपरदन और दुरुपयोग के कारण मृदा की गहराई कम हो जाती है।
● भारत में मृदा संसाधनों के क्षय का एक मुख्य कारक मृदा अवकर्षण भी है, जिसकी दर भू-आकृति, पवनों की गति तथा वर्षा की मात्रा तथा स्थानीय संरचना पर निर्भर करती है और यह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न होती है।
● भारत की कुल भूमि का लगभग आधा भाग किसी न किसी मात्रा में अवकर्षण से प्रभावित है। प्रति वर्ष भारत में अवकर्षण के कारण लाखों टन मृदा व उसके पोषक तत्वों का ह्रास होता है, जिसका दुष्प्रभाव हमारी राष्ट्रीय उत्पादकता पर पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि मृदाओं के संरक्षण के लिए त्वरित उपाय किए जाएँ।
■ मरूस्थलीकरण (Desertification)——->
● मरूस्थलीकरण का शाब्दिक अर्थ है कि वनस्पति एवं वनस्पति उत्पन्न करने की क्षमता से रहित क्षेत्र। जहाँ मिट्टी में भूमिगत जल, जैविक पदार्थ तथा आर्द्रता का अभाव होता है। किसी मरूस्थल के आस-पास गैर मरूस्थलीय क्षेत्रों में मरूस्थल के विकास/विस्तार को मरूस्थलीकरण (Desertification) कहा जाता है।
● भारत में 12.13% क्षेत्र शुष्क तथा 29.13% क्षेत्र अर्द्ध शुष्क वर्गों में रखा गया है। |
● मरूस्थल की समस्या के अध्ययन के लिए जोधपुर में Central Arid Zone Research Institute (CAZRI) की स्थापना की गई है। ● थार मरूस्थल का विस्तार राजस्थान के 16 जिलों में 1.70 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र पर है। यह मरूस्थल तेजी से दक्षिणी पश्चिमी पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों की ओर बढ़ रहा है। |
■ मरूस्थलीय विस्तार के कारक——->
1. तीव्र दर से बढ़ती हुई जनसंख्या
2. अनियंत्रित पशु चारण
3. निर्वनीकरण
4. जलवायवीय परिवर्तन
5. जल स्तर का गिरना
6. सूखे की पुनरावृत्ति
7. अधिक अपरदन
8. लवणीयता आदि।
■ मृदा संरक्षण——->
● मृदाएँ जीवित तंत्र होती हैं। किसी भी अन्य प्राणी की तरह इनका विकास, क्षरण तथा निम्नीकरण होता है। यदि समय पर उनका सही उपचार किया जाए तो उनमें सुधार भी होता है।
● मृदा संरक्षण के अन्तर्गत वे सभी विधियाँ शामिल हैं, जिसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखी जाती है, मिट्टी के अपरदन और क्षय को रोका जाता है और मिट्टी की निम्नीकृत दशाओं को सुधारा जाता है।
● यदि मृदा का बहाव हो गया है या अवकर्षण हो गया है, तो उसे पुनः स्थापित करना आसान नहीं होता है। इसलिए मृदा संरक्षण में सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि, मृदा अपने ही स्थान पर सुरक्षित बनी रहे। इसके लिए विभिन्न प्रदेशों में कृषि पद्धतियों में सुधार किए गए हैं। पहाड़ी ढलानों पर समोच्चरेखीय जुताई और सीढ़ीदार खेती की जाती है। मृदा संरक्षण की ये आसान विधियाँ हैं।
● मृदा अपरदन मूल रूप से दोषपूर्ण कृषि पद्धतियों द्वारा बढ़ता है। किसी भी तर्कसंगत समाधान के अंतर्गत पहला कार्य ढालों की कृषि योग्य खुली भूमि पर खेती को रोकना है।
● 15 से 25 प्रतिशत ढाल प्रवणता वाली भूमि का उपयोग कृषि के लिए नहीं होना चाहिए। यदि ऐसी भूमि पर खेती करना आवश्यक भी हो, तो इस पर सावधानी से सीढ़ीदार खेत बनाने चाहिए।
● वृक्षों की कतार या रक्षक-मेखला बनाकर मरूस्थलीय प्रदेशों में पवन-अपरदन से खेतों की रक्षा की जाती है। हिमालय के ढलानों और अपवाह क्षेत्र, झारखण्ड में ऊपरी दामोदर घाटी और दक्षिण में नीलगिरि की पहाड़ियों पर वनारोपण किया गया है। इसके द्वारा धरातलीय जल के तेज बहाव को कम किया गया है, जिससे मृदा अपने ही स्थान पर बँधी रहती है।
● भारत के विभिन्न भागों में अति चराई और स्थानान्तरण कृषि ने भूमि के प्राकृतिक आवरण को दुष्प्रभावित किया है। ग्रामवासियों को इनके दुष्परिणामों से अवगत करवा कर इन्हें (अति चराई और स्थानान्तरित कृषि) नियमित और नियंत्रित करना चाहिए।
● भेड़, बकरी और अन्य पशुओं द्वारा अतिचराई भी आंशिक रूप से भूमि अपरदन के लिये उत्तरदायी है। इस कारक द्वारा अपरदन जम्मू-कश्मीर, अपरदन के लिये उत्तरदायी है। इस कारक द्वारा अपरदन जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में ज्यादा होता है।
● शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि पर बालू के टीलों के प्रसार को वृक्षों की रक्षक मेखला बनाकर तथा वन्य-कृषि करके रोकने के प्रयास करने चाहिए। कृषि के लिए अनुपयुक्त भूमि को चरागाहों में बदल देना चाहिए।
● केन्द्रीय शुष्क भूमि अनुसंधान संस्थान (सीएजेडआरआई) ने पश्चिमी राजस्थान में बालू के टीलों को स्थिर करने के प्रयोग किए हैं।
● भारत सरकार द्वारा स्थापित केन्द्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड ने देश के विभिन्न भागों में मृदा संरक्षण के लिए अनेक योजनाएँ बनाई हैं।
● भारत में मृदा अपरदन की समस्या से निपटने के लिए सरकार द्वारा 1953 ई. में केन्द्रीय भूमि संरक्षण बोर्ड (Central Soil Conservation Board) की स्थापना की गई है। इसके तीन उद्देश्य हैं- |
1. असमतल (ऊबड़-खाबड़) भूमि को कृषि योग्य बनाना।
2. मरूस्थल के विस्तार को नियंत्रित करना।
3. वर्तमान कृषि योग्य भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखना।
● ये योजनाएँ जलवायु की दशाओं, भूमि संरूपण तथा लोगों के सामाजिक व्यवहार पर आधारित हैं। ये योजनाएँ भी एक-दूसरे से तालमेल किए बिना ही चलाई गई हैं। अतः मृदा संरक्षण का सर्वोत्तम उपाय भूमि उपयोग की समन्वित योजनाएँ हो सकती हैं।
● भूमि का उनकी क्षमता के अनुसार ही वर्गीकरण होना चाहिए। भूमि उपयोग के लिए मानचित्र बनाए जाने चाहिए और भूमि का सदैव उचित उपयोग किया जाना चाहिए। मृदा संरक्षण का निर्णायक दायित्व उन लोगों पर है, जो उसका उपयोग करते हैं और उससे लाभ उठाते हैं।
● खड्ड अपने विशाल आकार, गहराई और खड़े ढलानों के लिए जाने जाते हैं। ऐसी उत्खात भूमि का सुधार करने के लिये केन्द्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड ने तीन अनुसंधान केन्द्रों की स्थापना की है:- 1. राजस्थान में कोटा 2. उत्तर प्रदेश में आगरा 3. गुजरात में बालासोर |
■ मृदा संरक्षण की कुछ प्रमुख विधियाँ——->
● मल्च बनाना—–> पौधों के बीच अनावरित भूमि जैव पदार्थ जैसे पुआल से ढक दीजाती है, जिससे मृदा की आर्द्रता रूकी रहती है।
● वेदिका निर्माण—–> चौड़े, समतल सोपान अथवा वेदिका तीव्र ढालों पर बनाए जाते हैं। ताकि सपाट सतह फसल उगाने के लिए उपलब्ध हो जाए। इनसे पृष्ठीय प्रवाह और मृदा अपरदन कम होता है।
● समोच्च रेखीय जुताई——> एक पहाड़ी ढाल पर समोच्च रेखाओं के समानान्तर जुताई ढाल से नीचे बहते जल के लिए एक प्राकृतिक अवरोधक का निर्माण करती है।
● समोच्च रेखा के अनुसार मेड़बंदी, समोच्च रेखीय सीढ़ीदार खेत बनाना, नियमित वानिकी, नियंत्रित चराई, आवरण फसलें उगाना, मिश्रित खेती तथा शस्यावर्तन आदि उपचार के कुछ ऐसे तरीके हैं जिनका उपयोग मृदा अपरदन को कम करने के लिए प्रायः किया जाता है।
● रक्षक मेखलाएँ ——> तटीय प्रदेशों और शुष्क प्रदेशों में पवन गति रोकने के लिए वृक्ष कतारों में लगाए जाते हैं ताकि मृदा आवरण को बचाया जा सके।
● समोच्च रेखीय रोधिकाएँ ——-> समोच्चरेखाओं पर रोधिकाएँ बनाने के लिए पत्थरों, घास, मृदा का उपयोग किया जाता है। रोधिकाओं के सामने जल एकत्र करने के लिए खाइयाँ बनाई जाती हैं।
● चट्टान बाँध——> यह जल के प्रवाह को कम करने के लिए बनाए जाते हैं। यह नालियों की रक्षा करते हैं और मृदा क्षरण को रोकते हैं।
● भिन्न फसलें उगाना——> वर्षा दोहन से मृदा को सुरक्षित रखने के लिए अलग-अलग समय पर भिन्न-भिन्न फसलें एकांतर कतारों में उगाई जाती हैं।
● मृदा संरक्षण के अन्तर्गत वे सभी उपाय सम्मिलित हैं, जो मिट्टी को अपरदन से बचाते हैं और उसकी उर्वरता को बनाए रखते हैं। मृदा अपरदन को रोकने के कुछ प्रभावी उपाय इस प्रकार हैं- 1. बड़ी नदियों की सहायक नदियों पर बाढ़ और मृदा अपरदन नियंत्रण हेतु छोटे बाँधों का निर्माण करना। 2. नहरों में जल रिसाव से बचाव हेतु और जलमग्नता तथा भौम जल तल में उत्थान को नियंत्रित करने के लिए उनकी तली और किनारों को पक्का करना। 3. धरातलीय और लम्बवत अपवाह के विस्तार द्वारा जलमग्नता की समस्या का समाधान करना। 4. मरूस्थली क्षेत्रों में वायु विच्छेदों और सुरक्षा पेटियों का निर्माण करना। 5. वैज्ञानिक विधियों और जिप्सम आदि का प्रयोग कर क्षारीय मिट्टियों का उपचार करना। 6. वनस्पति रहित क्षेत्रों में रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जैव उर्वरकों के उपयोग में वृद्धि करना। 7. खाद के रूप में गोबर और वनस्पति के उपयोग को लोकप्रिय बनाना। 8. मानव अपशिष्ट और नगरीय कचरे को खाद में परिवर्तित करना। 9. वैज्ञानिक शस्यावर्तन और परती भूमि छोड़कर मृदा उर्वरता का संरक्षण करना। 10. अवनालिकाओं का भराव एवं ढलुवाँ सतह के सहारे वेदिकाओं का निर्माण करना। 11. बीहड़ क्षेत्रों का समतलन और इन क्षेत्रों में मिट्टी को संगठित करने वाले पौधों का रोपण करना। 12. झूम कृषि क्षेत्रों को आधुनिक स्थायी कृषि क्षेत्रों में परिवर्तित करना। शुष्क और पहाड़ी क्षेत्रों में वृक्षारोपण और अत्यधिक पशुचारण पर प्रतिबंध लगाना। |
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