मृदा के प्रकार (Type of Soil) से संबंधित सभी प्रश्न जो की प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं वे सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए लाभकारी होगा जैसे UPSC, UPPSC, MPPCS, UKPCS,BPSC,UPPCS,UP POLICE CONSTABLE, UPSI,DELHI POLICE, MP POLICE, BIHAR POLICE, SSC, RAILWAY, BANK, POLICE,RAILWAY NTPC,RAILWAY RPF,RAILWAY GROUP D,RAILWAY JE,RAILWAY TECNICIAN, Teaching Bharti अन्य सभी परीक्षाओं के लिए उपयोगी
■ मृदा के प्रकार (Type of Soil)——->
- जलोढ़ मृदाएँ
2. काली मृदाएँ
3. लाल और पीली मृदाएँ
4. लैटेराइट मृदाएँ
5. शुष्क मृदाएँ
6. लवणीय मृदा
7. पीटमय मृदा
वन मृदा
■ जलोढ़ या दोमट मृदा (Alluvial Soil)——->
● यह उत्तरी मैदानों और नदी घाटियों में भारत के सर्वाधिक क्षेत्रों में पायी जाने वाली मृदा है, जो देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 40 प्रतिशत भाग (15 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र पर विस्तृत) को ढके हुए है।
● यह पंजाब से असम तक के विशाल मैदानी भाग के साथ-साथ नर्मदा, ताप्ती (तापी), महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी की घाटियों एवं केरल के तटवर्ती भागों में विस्तृत है।
● ये निक्षेपित मृदाएँ हैं, जिन्हें नदियों और सरिताओं ने अपरदित किया है। यह मृदा हिमालय के तीन महत्वपूर्ण नदी तंत्रों सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं सहायक नदियों द्वारा लाए गए निक्षेपों से बनी हैं, जो एक सँकरे गलियारे के द्वारा राजस्थान से गुजरात तक फैली हैं।
● प्रायद्वीपीय प्रदेश में ये पूर्वी तट की नदियों के डेल्टाओं और नदियों की घाटियों में पायी जाती हैं। पूर्वी तटीय मैदान विशेषकर महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टा भी जलोढ़ मृदा से बने हैं।
● जलोढ़ मृदाओं का रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है। इसका रंग निक्षेपण की गहराई, जलोढ़ के गठन और निर्माण में लगने वाली समयावधि पर निर्भर करता है।
● जलोढ़ मृदा की उर्वरता अधिक होती है, इसलिए जलोढ़ मृदा वाले क्षेत्रों में गहन कृषि की जाती है, इस क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व भी अधिक पाया जाता है।
● जलोढ़ मृदाएँ गठन में बलुई दोमट से चिकनी होती हैं। इस मिट्टी में पोटाश, फॉस्फोरिक अम्ल, चूना तथा जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। किन्तु इनमें नाइट्रोजन तथा ह्यूमस तत्व बहुत कम पाया जाता है। इस मिट्टी की परिच्छेदिका उच्च भूमियों में अपरिपक्व एवं निम्न भूमियों में परिपक्व होती है।
● पश्चिम से पूर्व की ओर इनमें बालू की मात्रा घटती जाती है। इस मृदा में रेत, गाद और मृत्तिका के विभिन्न अनुपात पाये जाते हैं।
● बलुई दोमट मृदा की जलधारण क्षमता सबसे कम होती है क्योंकि इसमें रेत के कण भारी मात्रा में पाये जाते हैं।
● सामान्यतः दोमट मिट्टी (Loam Soil) में 40% बालू के कण, 40% चिकने कण एवं 20% गाद (Silt) पायी जाती है।
● जलोढ़ मिट्टी चावल, गेहूँ, गन्ना, जूट, कपास, तिलहन, फल एवं सब्जियों की कृषि के लिए उपयुक्त होती है।
● सूखे क्षेत्र की मृदाएँ अधिक क्षारीय होती हैं। निम्न और मध्य गंगा के मैदान एवं ब्रह्मपुत्र घाटी में ये मृदाएँ अधिक दोमटी और मृण्मय हैं।
● गंगा के ऊपरी और मध्यवर्ती मैदान में बांगर (पुरानी जलोढ़) और खादर (नई जलोढ़) नाम की दो भिन्न मृदाएँ विकसित हुई हैं।
■ बांगर (Bangar)——->
● पुरानी जलोढ़क (पुरानी कछारी मृदा) जो अपरदन से प्रभावित होती है, बांगर कहलाती है। इसका जमाव बाढ़कृत मैदानों से दूर होता है। इसमें कंकर तथा अशुद्ध कैल्शियम कार्बोनेट की ग्रंथियों की मात्रा ज्यादा होती है। इस मृदा का रंग पीला रक्ताभ भूरा (Pale Reddish Brown) होता है। ● शुष्क क्षेत्रों में इन मिट्टियों में लवणीयता तथा क्षारीयता के निक्षेप भी मिलते हैं, जिन्हें रेह कहा जाता है। ● बांगर के निर्माण में चीका मिट्टी का प्रमुख योगदान रहता है, कहीं-कहीं दोमट या रेतीली दोमट मिट्टी भी मिलती है। इस मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए भारी मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती है। |
■ खादर (Khadar)——->
● यह प्रतिवर्ष बाढ़ों के द्वारा निक्षेपित होने वाला नया जलोढ़क है, जिसमें बारीक गाद की अधिकता के कारण मृदा की उर्वरता बढ़ जाती है। इसमें बांगर मृदा की तुलना में ज्यादा बारीक कण पाये जाते हैं। खादर और बांगर मृदाओं में कंकड़ भी पाये जाते हैं। |
■ काली मृदा (Black Soil)——->
● भारत में काली मृदा का निर्माण ज्वालामुखी विस्फोट से निकले लावा के ठंडे होने के उपरांत बेसाल्ट लावा के अपक्षय (टूटने-फूटने) से हुआ है। इसलिए इसे लावा मिट्टी भी कहते हैं। मालवा का पठार इसी दक्कन ट्रैप की काली मिट्टी क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। गोदावरी और कृष्णा नदियों के ऊपरी भागों और दक्कन के पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में गहरी काली मृदा पायी जाती है।
● ये मृदाएँ दक्कन ट्रैप के ऊपरी भागों में विशेष रूप से गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र, ओडिशा के दक्षिणी क्षेत्र, कर्नाटक के उत्तरी जिलों, आंध्रप्रदेश के दक्षिणी एवं समुद्री तटीय क्षेत्र, तमिलनाडु के सलेम, रामनाथपुरम, कोयम्बटूर एवं तिरून्नवेली जिलों, राजस्थान के बूँदी एवं टोंक जिलों में, छत्तीसगढ़ के पठारी क्षेत्र तक फैली है।
● रासायनिक दृष्टि से काली मृदा में लोहा, चूना, कैल्शियम- कार्बोनेट, पोटाश, एल्युमिनियम एवं मैग्नीशियम कार्बोनेट, प्रचुर मात्रा में तथा नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और जैविक पदार्थों (ह्यूमस) की कमी पायी जाती है।
● आमतौर पर काली मृदाएँ मृण्मय (Clayey) गहरी और अपारगम्य (Impermeable) होती हैं। ये मृदाएँ गीली होने पर फूल जाती हैं तथा चिपचिपी हो जाती हैं। सूखने पर ये सिकुड़ जाती हैं। इस प्रकार, शुष्क ऋतु में इन मृदाओं में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। इस समय ऐसा प्रतीत होता है कि, जैसे इनमें स्वतः जुताई हो गई हो।
● यह बहुत महीन कण अर्थात् मृत्तिका से बनी हैं, जिसकी नमी धारण करने की क्षमता बहुत अधिक होती है।
● नमी के धीमे अवशोषण और नमी के क्षय की इस विशेषता के कारण काली मृदा में एक लम्बी अवधि तक नमी बनी रहती है। इसके कारण विशेष रूप से वर्षाधीन फसलों को शुष्क ऋतु में भी नमी मिलती रहती है तथा वे फलती-फूलती रहती हैं।
● इस मिट्टी का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट एवं जीवांश (ह्यूमस) की उपस्थिति के कारण होता है। इस मिट्टी का रंग गहरे काले से लेकर हल्के काले तथा चेस्टनट (भूरी मिट्टी) तक है।
● काली मृदा कपास की खेती के लिए उचित समझी जाती है, इसलिए इसे काली कपासी मृदा (Black Cotton Soil) के नाम से भी जाना जाता है।
■ लाल और पीली मृदा (Red and Yellow Soil)——->
● इसका निर्माण जलवायविक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप रवेदार एवं कायान्तरित शैलों के विघटन एवं वियोजन से होता है। इस मिट्टी में लोहा एवं सिलिका की प्रधानता होती है।
● इस मृदा का लाल रंग लौह ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है, लेकिन जलयोजित रूप में यह पीली दिखाई पड़ती है। भूजल इसलिए इस मृदा को लाल और पीली मृदा कहा जाता है।
● लाल मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी एवं दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ रवेदार आग्नेय चट्टानें (Crystalline Igneous Rocks) पायी जाती हैं।
● पश्चिमी घाट के गिरिपाद क्षेत्र की एक लंबी पट्टी में लाल दोमट मृदा पायी जाती है।
● पीली और लाल मृदाएँ ओडिशा और छत्तीसगढ़ के कुछ भागों एवं मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पायी जाती हैं।
● यह अम्लीय प्रकृति की मृदा होती है। इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं ह्यूमस की कमी होती है। यह मृदा प्रायः अनुर्वर (बंजर) भूमि के रूप में पायी जाती है।
● उच्च भूमियों में इन मिट्टियों की परत महीन होती है तथा ये बजरीयुक्त, बलुई, पथरीली एवं छिद्रयुक्त होती हैं। इसलिए ये बाजरे जैसी खाद्यान्न फसलों के लिए उपयुक्त होती हैं किन्तु निम्न भूमियों तथा घाटियों में ये समृद्ध, गहरी, उर्वर एवं गहरे रंग की होती हैं तथा कपास, गेहूँ, दाल, तम्बाकू, ज्वार, अलसी, मोटे अनाज, आलू तथा फलों की खेती के लिए उपयुक्त होती हैं।
● भारत में यह मिट्टी तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश एवं मध्यप्रदेश के पूर्वी भाग, छत्तीसगढ़, ओडिशा तथा झारखण्ड के व्यापक क्षेत्रों में तथा पश्चिम बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती है।
■ लैटेराइट मृदा (Laterite Soil)——-
● लैटेराइट एक लैटिन शब्द लेटर (Later) से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ-ईंट (Brick) होता है। इस मृदा का प्रयोग ईंट बनाने में भी किया जाता है।
● इसका निर्माण मानसूनी जलवायु की आर्द्रता एवं शुष्कता में क्रमिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न विशिष्ट परिस्थितियों में होता है। इसमें आयरन एवं सिलिका की बहुलता होती है।
● वर्षा के साथ चूना और सिलिका निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और एल्युमिनियम के यौगिक से भरपूर मृदाएँ शेष रह जाती हैं।
● लैटेराइट मृदा उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है, जो उष्णकटिबंधीय भारी वर्षा के कारण तीव्र निक्षालन (Leaching) का परिणाम है। ये आर्द्र प्रदेशों की अपक्षालित मृदाएँ हैं।
■ कणों के आकार पर लैटेराइट मिट्टियाँ—–>
1.भूजलीय लैटेराइट
2.गहरी लाल लैटेराइट
3.श्वेत लैटेराइट
● गहरी लाल लैटेराइट में लौह-ऑक्साइड एवं पोटाश की बहुलता होती है। इसकी उर्वरता कम होती है, लेकिन निचले भाग में कुछ खेती की जाती है।
● सफेद लैटेराइट की उर्वरता सबसे कम होती है तथा केओलिन के कारण इसका रंग सफेद होता है। भूमिगत जलीय लैटेराइट मृदा तुलनात्मक रूप से अत्यंत उपजाऊ होती है, क्योंकि वर्षाकाल में लौह-ऑक्साइड जल के साथ घुलकर नीचे चले जाते हैं।
● लैटेराइट मृदा का लाल रंग लोहे के ऑक्साइड के कारण होता है। ये मिटिट्याँ सामान्यतः लोहे और एल्युमिनियम में समृद्ध होती हैं, जबकि इनमें नाइट्रोजन, चूना एवं जैविक पदार्थों की कमी होती हैं
● इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा कम पायी जाती है, क्योंकि इन क्षेत्रों में तापमान व वर्षा की मात्रा अधिक होने के कारण क्षारीय तत्व व ह्यूमस जल के साथ घुलकर नीचे की परतों में चले जाते हैं।
● ये प्रायः कम उर्वरता वाली मिट्टियाँ हैं। किन्तु उर्वरकों के प्रयोग से इनमें कपास, चावल, रागी, गन्ना, दाल, चाय, कहवा और काजू आदि की कृषि की जाती है। यह मृदा चाय एवं इलायची की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है।
● तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल की लाल लैटेराइट मृदा काजू की फसल के लिए अधिक उपयुक्त है। |
● मृदा संरक्षण की उचित तकनीक अपनाकर इस मृदा में कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में चाय और कॉफी उगाई जाती है।
● इस मृदा का विकास मुख्य रूप से प्रायद्वीपीय पठार के ऊँचे क्षेत्रों में हुआ है, जो मुख्य तौर पर सह्याद्रि, पूर्वी घाट, राजमहल, पहाड़ियाँ, सतपुड़ा, विन्ध्य तथा महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, ओडिशा, असम एवं मेघालय के पहाड़ी क्षेत्रों में पायी जाती हैं
■ शुष्क मृदा (Arid Soil)——->
● शुष्क मृदाओं का रंग लाल तथा किशमिशी प्रकार का होता है। ये सामान्यतः संरचना में बलुई और प्रकृति में लवणीय होती हैं।
● कुछ क्षेत्रों की मृदाओं में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि, इनके पानी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है।
● शुष्क जलवायु, उच्च तापमान एवं तीव्रगति से वाष्पीकरण के कारण इन मृदाओं में नमी और ह्यूमस की मात्रा कम होती है।
● इनमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फॉस्फेट सामान्य मात्रा में होता है तथा नीचे की ओर चूने की मात्रा में वृद्धि होने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ों की परत पायी जाती है।
● मृदा की तली संस्तर में कंकड़ों की परत बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित हो जाता है, इसीलिए सिंचाई किए जाने पर इन मृदाओं में पौधों की सतत् वृद्धि के लिए पर्याप्त नमी हमेशा उपलब्ध रहती है।
● ये मृदाएँ विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में विकसित हुई हैं। ये मृदाएँ अनुर्वर हैं, क्योंकि इनमें ह्यूमस और जैव पदार्थ कम मात्रा में पाये जाते हैं।
■ मरूस्थलीय मृदा (Desert Soil)——->
● मरूस्थलीय मृदाओं का रंग लाल और भूरा होता है, जो सामान्यतः रेतीली से बजरी युक्त और लवणीय होती हैं। इनमें जैविक पदार्थ तथा नाइट्रोजन की कमी एवं कैल्शियम कार्बोनेट की भिन्न मात्रा पायी जाती है। इन मृदाओं में नाइट्रोजन, ह्यूमस और नमी की मात्रा कम होती है।
● मृदा की सतह के नीचे कैल्शियम की मात्रा बढ़ती चली जाती है। नीचे की परतों में चूने के कंकड़ की सतह पायी जाती है, जिसके कारण मृदा में जल अंतः स्यंदन (Infiltration) अवरूद्ध हो जाता है।
● इस मृदा को अच्छे तरीके से सिंचित करके कृषि योग्य बनाया जा सकता है, जैसा कि पश्चिमी राजस्थान में हो रहा है। इन मिट्टियों का विस्तार राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, हरियाणा एवं दक्षिणी पंजाब में है।
■ वन मृदाएँ (Forest Soil)——->
● ये मिट्टियाँ 3,000 मी. से 3,100 मी. के बीच हिमालय में शंकुधारी वन क्षेत्रों में पायी जाती हैं। इनके कुछ जमाव सहयाद्रि, पूर्वी घाट और तराई क्षेत्र (उत्तर प्रदेश) में भी देखे जाते हैं।
● यहाँ पर धरातल पेड़-पौधों की पत्तियों आदि से ढ़का होता है। इनके सड़ने-गलने से ऊपरी भाग में मिट्टी का रंग काला हो जाता है जो नीचे की ओर धूसर-भूरा या धूसर लाल में परिणत हो जाता है।
● ये मिट्टियाँ पौधों के लिए पोषकों से सम्पन्न होती हैं परन्तु इनमें पोटाश, फास्फोरस एवं चूने की कमी पाई जाती है।
● इनमें अम्लीय दशाओं में पॉडजोल (Podzols) से लेकर कम अम्लीय या निरपेक्ष दशाओं में भूरी मिट्टी (Brown Earth) के बीच परिवर्तन देखा जाता है।
● इनमें चाय, कहवा मसालों के अतिरिक्त गेहूँ चावल, मक्का, जौ आदि का उत्पादन किया जाता है।
■ पर्वतीय मृदा (Mountain Soil)——->
● पर्वतीय मृदाएँ जटिल होती हैं और इनमें अत्यधिक विविधता मिलती है। ये नदी द्रोणियों और निम्न ढलानों पर जलोढ़ मृदा के रूप में पायी जाती हैं। ऊँचे भागों पर अपरिपक्व मृदा या पथरीली मृदा के रूप में पायी जाती हैं। पर्वतीय ढालों पर विकसित होने के कारण इस मिट्टी की परत पतली होती है।
● पर्वतीय भागों में भू-आकृतिक, भू-वैज्ञानिक, वानस्पतिक एवं जलवायु दशाओं की विविधता एवं जटिलता के कारण यहाँ एक ही तरह की मृदा के बड़े-बड़े क्षेत्र नहीं मिलते हैं।
● इस मिट्टी में जीवांश की अधिकता होती है। ये जीवांश अधिकतर अनपघटित (Undecomposed) होते हैं, फलस्वरूप ह्यूमिक अम्ल का निर्माण होता है तथा मिट्टी अम्लीय हो जाती है।
● इस मिट्टी में पोटाश, फॉस्फोरस एवं चूने की कमी होती है। जिसके कारण मिट्टी की ऊर्वरा शक्ति भी कम होती है।
● खड़े ढाल वाले उच्चावच प्रदेश मृदा विहीन होते हैं। इस मृदा के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं, जैसे- चावल नदी घाटियों में, फलों के बाग ढलानों पर और आलू लगभग सभी क्षेत्रों में पैदा किया जाता है।
● ढालों पर स्थित होने के कारण यह मिट्टी बागानी फसलों (Plantation Crops) एवं फलों की कृषि के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। भारत में चाय, कहवा, मसाले एवं फलों की कृषि इसी मृदा में की जाती है।
■ लवणीय मृदाएँ (Saline Soil)——->
● ऐसी मृदाओं को ऊसर मृदाएँ भी कहते हैं। लवणीय मृदाओं में सोडियम, पोटैशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। अतः ये अनुर्वर होती हैं तथा इनमें किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं उगती।
● मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह के कारण इनमें लवणों की मात्रा बढ़ती जाती है। इनकी संरचना बलुई से लेकर दोमट तक होती है। इनमें नाइट्रोजन और चूने की कमी होती है।
● ये मृदाएँ शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क (Semi Arid) तथा जलाक्रांत (Water Logging) क्षेत्रों में पायी जाती हैं। इसका अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिम बंगाल के सुंदरवन क्षेत्रों में है।
● कच्छ के रण में दक्षिण-पश्चिम मानसून के साथ नमक के कण आते हैं, जो एक पपड़ी के रूप में ऊपरी सतह पर जमा हो जाते हैं।
● डेल्टाई प्रदेश में समुद्री जल के भर जाने से इन मृदाओं के विकास को बढ़ावा मिलता है।
● अत्यधिक सिंचाई वाले गहन कृषि के क्षेत्रों में, विशेष रूप से हरित क्रांति वाले क्षेत्रों में, उपजाऊ जलोढ़ मृदाएँ भी लवणीय होती जा रही हैं।
● शुष्क जलवायु वाली दशाओं में अत्यधिक सिंचाई केशिका क्रिया (Capillary Action) को बढ़ावा देती है। इसके परिणामस्वरूप नमक ऊपर की ओर बढ़ता है तथा मृदा की सबसे ऊपरी परत में नमक जमा हो जाता है।
● केशिका क्रिया के परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों में सोडियम, कैल्शियम एवं मैग्नीशियम के लवण धरातल पर एक सफेद परत के रूप में दिखाई पड़ने लगते हैं।
● भारत में सर्वाधिक लवण प्रभावी क्षेत्र गुजरात में है। लवण प्रभावी (Salt Affected) मृदा को लवणीय (Saline), क्षारीय (Alkaline) एवं तटीय लवणीय में विभाजित किया जाता है।
● भारत में सर्वाधिक लवणीय मृदा वाले राज्यों का अवरोही क्रम गुजरात, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश है। |
● मृदा का लवणीकरण मृदा में एकत्रित सिंचित जल के वाष्पीकृत होने से पीछे छूटे नमक और खनिजों से उत्पन्न होता है। सिंचित भूमि पर मृदा के लवणीकरण होने के कारण मृदाएँ अपारगम्य हो जाती हैं।
● मृदा में लवणता की मात्रा को ज्ञात करने के लिए विद्युत चालकता मापी (Electrical Cunductivity) का प्रयोग किया जाता है।
● इस प्रकार के क्षेत्रों में, विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा में लवणता की समस्या से निपटने के लिए चूना (Lime) या जिप्सम (Gypsum) के प्रयोग और लवणरोधी फसलों जैसे- बरसीम, चावल, गन्ना की खेती करने की सलाह दी जाती है।
● मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह के कारण इनमें लवणों की मात्रा बढ़ती जाती है।
■ लवणीय व क्षारीय मृदा(स्थानीय नाम)—–>
○ रेह
○ कल्लर
○ रकार
○ ऊसर
○ कार्ल
○ चॉपेन
■ पीटमय मृदाएँ (Peaty Soil)——->
● नदी डेल्टा वाले क्षेत्र में जलभराव वाले क्षेत्र की मिट्टी को पीट मृदा कहते हैं। ये मृदाएँ भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता से युक्त उन क्षेत्रों में पायी जाती हैं, जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी होती है।।
● इन क्षेत्रों में मृत्त जैव पदार्थों की अधिकता के कारण मृदा को ह्यूमस और पर्याप्त मात्रा में जैव तत्व प्राप्त होते हैं।
● यह मृदा काली, भारी और अम्लीय होती है, जिसमें लवण और जैव पदार्थों की अधिकता परंतु फॉस्फेट और पोटाश की कमी देखी जाती है। यह धान की खेती के लिए उपयुक्त मृदा है। यह मृदा मुख्यतः केरल राज्य में कोट्टायम जनपद के पश्चिमी भाग और अलपुझा जनपद के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती है।
● इन मृदाओं में जैव पदार्थों की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक होती है तथा ये मृदाएँ सामान्यतः गाढ़े काले रंग की होती हैं। ये मृदा कई स्थानों पर क्षारीय भी होती हैं।
● दलदली मृदाएँ अधिकतर बिहार के उत्तरी भाग, उत्तराखण्ड के दक्षिणी भाग, पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों, ओडिशा और तमिलनाडु में पायी जाती हैं।
■ अम्लीय एवं क्षारीय मृदा——->
● अम्लीय मृदा की उत्पत्ति अधिक वर्षा वाले स्थानों में होती है। इस मृदा में कच्चे जीवांश की अधिकता होती है। जिसके सड़ने से उत्पन्न कार्बन डाई ऑक्डाइड पानी के साथ मिलकर कार्बोनिक अम्ल बनाती है।
● जब मृदा में हाइड्रोजन (H+) आयनों की सान्द्रता बढ़ जाती है, तो मृदा अम्लीय हो जाती है। चूने के प्रयोग द्वारा अम्लीय मृदा के कणों से हाइड्रोजन आयन बाहर आ जाते हैं। अम्लीय मृदा का PH मान 7 से कम होता है।
● चाय के बागानों के लिए गहरी अम्लीय और अच्छे जल निकासी वाली मृदा की आवश्यकता होती है। जल निकासी की पर्याप्त सुविधा होने के कारण ही इन बागानों को पर्वतीय ढालों पर लगाया जाता है।
● क्षारीय मृदा की उत्पत्ति कम वर्षा वाले स्थानों पर होती है। कम वर्षा वाले स्थानों पर क्षारीय लवण घुल कर पानी के साथ नष्ट नहीं होते बल्कि ऊपरी सतह पर एकत्र हो जाते हैं।
● जब मृदा में (OH-) आयनों की सान्द्रता बढ़ जाती है, तो मृदा क्षारीय या ऊसर बन जाती है। चूने के प्रयोग से क्षारीय मृदा से सोडियम आयन बाहर आते हैं। क्षारीय मृदा का pH मान 7 से अधिक होता है।
● क्षारीय मृदाएँ राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब एवं महाराष्ट्र राज्यों के शुष्क क्षेत्रों में पायी जाती हैं। इन अनुपजाऊ क्षेत्रों को रेह, कल्लर, ऊसर, रकार, धुर, कर्ल एवं चॉपेन आदि नामों से जाना जाता है।
● भारत में सर्वाधिक क्षारीय मृदा वाले राज्यों का घटता क्रम उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा एवं पंजाब है। |
● अधिक अम्लीय या अधिक क्षारीय मृदा फसलों के लिए उपयुक्त नहीं होती है।
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