अपवाह तंत्र से संबंधित सभी प्रश्न जो की प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं वे सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए लाभकारी होगा जैसे UPSC, UPPSC, MPPCS, UKPCS,BPSC,UPPCS,UP POLICE CONSTABLE, UPSI,DELHI POLICE, MP POLICE, BIHAR POLICE, SSC, RAILWAY, BANK, POLICE,RAILWAY NTPC,RAILWAY RPF,RAILWAY GROUP D,RAILWAY JE,RAILWAY TECNICIAN, Teaching Bharti अन्य सभी परीक्षाओं के लिए उपयोगी
■ अपवाह तंत्र———>
● भारत नदियों का देश है। भारत के आर्थिक विकास में नदियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। नदियाँ यहाँ आदिकाल से ही मानव के जीविकोपार्जन का साधन रही हैं।
● भारत में 4,000 से भी अधिक छोटी-बड़ी नदियाँ हैं, जिन्हें 23 वृहद् एवं 200 लघु स्तरीय नदी दोणियों (River Basins) में विभाजित किया जा सकता है।
● किसी नदी के रेखीय स्वरूप को प्रवाह रेखा (Drainage Line) कहते हैं। कई प्रवाह रेखाओं के योग को प्रवाह संजाल (Drainage Network) कहते हैं।
● निश्चित वाहिकाओं (Channels) के माध्यम से हो रहे जलप्रवाह को अपवाह (Drainage) तथा इन वाहिकाओं के जाल को अपवाह तंत्र (Drainage System) कहा जाता है।
● अपवाह तंत्र से तात्पर्य किसी क्षेत्र की जल प्रवाह प्रणाली से है अर्थात् किसी क्षेत्र के जल को कौन-सी नदियाँ बहाकर ले जाती हैं।
● किसी क्षेत्र का अपवाह तंत्र वहाँ की भू-वैज्ञानिक समयावधिक चट्टानों की प्रकृति एवं संरचना, स्थलाकृति, ढाल, बहते जल की मात्रा एवं बहाव की अवधि पर निर्भर करता है।
● एक नदी तंत्र (सहायक नदियों सहित) द्वारा अपवाहित क्षेत्र को अपवाह द्रोणी (Drainage Basin) कहते हैं और एक अपवाह द्रोणी को दूसरे से अलग करने वाली सीमा को जल विभाजक (Water-Divider) कहा जाता हैं।
● बड़ी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को नदी द्रोणी (River Basin) जबकि छोटी नदियों व नालों द्वारा अपवाहित क्षेत्र को जल-संभर (Watershed) कहा जाता है। नदी द्रोणी का आकार बड़ा तथा जल-संभर का आकार छोटा होता है।
● नदी अपना जल किसी विशेष दिशा में बहाकर समुद्र में मिलाती है, यह कई कारकों पर निर्भर करता है, जैसे- भूतल का ढाल, भौतिक संरचना, जल प्रवाह की मात्रा एवं जल का वेग।
■ भारतीय अपवाह तंत्र का वर्गीकरण———>
(समुद्र में जल विसर्जन के आधार पर)
● अरब सागरीय अपवाह तंत्र
● बंगाल की खाड़ी का अपवाह तंत्र
● कुल अपवाह क्षेत्र का लगभग 77 प्रतिशत भाग, जिसमें गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा आदि नदियाँ शामिल हैं, बंगाल की खाड़ी में जल विसर्जित करती हैं, जबकि 23 प्रतिशत भाग जिसमें सिंधु, नर्मदा, तापी, माही व पेरियार नदियाँ शामिल हैं, अपना जल अरब सागर में गिराती हैं।
● जल-संभर क्षेत्र के आकार के आधार पर भारतीय अपवाह द्रोणियों को तीन भागों में बाँटा गया है- 1. प्रमुख नदी द्रोणी :——-> जिनका अपवाह क्षेत्र 20,000 वर्ग किमी. से अधिक है। इसमें 14 नदी द्रोणियाँ शामिल हैं, जैसे- गंगा, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, तापी, नर्मदा, माही, पेन्नार, साबरमती, बराक आदि। 2. मध्यम नदी द्रोणी :——–> जिनका अपवाह क्षेत्र 2,000 से 20,000 वर्ग किमी. के बीच है। इसमें 44 नदी द्रोणियाँ हैं, जैसे- कालिंदी, पेरियार, मेघना आदि। 3. लघु नदी द्रोणी :——–> जिनका अपवाह क्षेत्र 2,000 वर्ग किमी. से कम है। इसमें न्यून वर्षा के क्षेत्रों में बहने वाली बहुत-सी नदियाँ शामिल हैं। |
● सिंधु, सतलज, गंगा व ब्रह्मपुत्र जैसी अनेक नदियों का उद्गम स्त्रोत हिमालय पर्वत है।
■ अपवाह प्रवृत्ति———>
1. पूर्ववर्ती अथवा प्रत्यानुवर्ती अपवाह (The Antecedent or In- consequent Drainage):——-> वे नदियाँ, जो हिमालय पर्वत के निर्माण के पूर्व प्रवाहित होती थीं तथा हिमालय के निर्माण के पश्चात् महाखड्ड बनाकर अपने पूर्व मार्ग से प्रवाहित होती हैं पूर्ववर्ती नदियाँ कहलाती हैं। जैसे- गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु तथा सतलुज। 2. अनुवर्ती नदियाँ (Consequent Rivers):———> वे नदियाँ, जो सामान्य ढाल की दिशा में बहती हैं, अनुवर्ती नदियाँ कहलाती है। प्रायद्वीपीय भारत की अधिकतर नदियाँ अनुवर्ती नदियाँ हैं। 3. परवर्ती नदियाँ (Subsequent Rivers):———-> चम्बल, सिंधु, बेतवा, सोन आदि नदियाँ गंगा और यमुना में जाकर समकोण पर मिलती हैं। गंगा अपवाह तंत्र के परवर्ती अपवाह का उदाहरण है। 4. द्रुमाकृतिक अपवाह (Dendritic Drainage):———> वह अपवाह जो शाखाओं में फैला हो, जो द्विभाजित हो तथा वृक्ष के समान प्रतीत हो, उसे द्रुमाकृतिक अपवाह कहते हैं। 5. जालीनुमा अपवाह (Trellis Drainage):———> यह एक आयताकार प्रतिरूप है, जहाँ मुख्य नदियाँ एक-दूसरे के सामांनतर बहती हैं और सहायक नदियाँ समकोण पर पायी जाती हैं। 6. कंटकीय प्रतिरूप (Barbed Pattern):———> अपवाह का ऐसा प्रतिरूप जहाँ मुख्य नदी के साथ सहायक नदियों के संगम में एक असंगत सम्मिलन नजर आता है। 7. आयताकार अपवाह (Rectangular Drainage):———> वह अपवाह प्रतिरूप, जिसकी विशेषता सहायक नदियों एवं मुख्य नदी के बीच समकोणीय घुमाव एवं समकोणीय सम्मिलन है। 8. अरीय प्रतिरूप (Radial Pattern):———> इस अपवाह प्रतिरूप में किसी केन्द्रीय स्थान से नदियों का बहिर्गमन होता है, जो एक पहिये के अरों के अनुरूप होता है। 9. वलयाकार प्रतिरूप (Annular Pattern):——-> इस प्रकार के अपवाह प्रतिरूप में, परवर्ती नदियाँ अनुवर्ती नदी से जुड़ने से पहले वक्र अथवा चापाकार मार्ग से होकर गुजरती हैं। यह आंशिक रूप से भूमिगत वृत्ताकार संरचना के अनुकूलन का परिणाम है। 10. समानान्तर अपवाह (Parallel Drainage):———> वह अपवाह प्रतिरूप, जिसमें नदियाँ लगभग एक-दूसरे के समानान्तर बहती हैं, समानान्तर अपवाह कहलाता है। 11 . अपविन्यस्त अपवाह (Deranged Drainage):———> यह किसी क्षेत्र के अपवाह की विशेषता का एक असमन्वित प्रतिरूप है, यह सम्भवतः हिमनदीय निक्षेपों (जैसे-केम तथा केटल) से उत्पन्न अनियमितताओं के कारण होता है। |
● प्रायद्वीपीय पठार की अधिकांश बड़ी नदियों का उद्गम स्थल पश्चिमी घाट है तथा ये नदियाँ बंगाल की खाड़ी में अपना जल विसर्जित करती हैं। नर्मदा और तापी जैसी दो बड़ी नदियाँ एवं अनेक छोटी नदियाँ इसके अपवाद के रूप में अपना जल, अरब सागर में विसर्जित करती हैं।
■ भारत में अपवाह तंत्र——->
● भारत के अपवाह तंत्र का नियंत्रण मुख्यतः भौगोलिक स्परूप के द्वारा होता है।
■ भारतीय नदियों का विभाजन——->
● (उद्गम एवं प्रकृति के आधार पर)
○ हिमालयी या उत्तरी भारत का अपवाह तंत्र
○ प्रायद्वीपीय या दक्षिणी भारत का अपवाह तंत्र
● यद्यपि इस विभाजन योजना में चंबल, बेतवा, सोन आदि नदियों के वर्गीकरण में समस्या उत्पन्न होती है, क्योंकि उत्पत्ति व आयु में ये हिमालय से निकलने वाली नदियों से पुरानी हैं। फिर भी यह अपवाह तंत्र के वर्गीकरण का सर्व मान्य आधार है।
■ हिमालयी अपवाह तंत्र——–>
● उत्तर भारत के अपवाह तंत्र में हिमालय का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि उत्तर भारत की नदियों का उद्गम हिमालय और उसके आस-पास के क्षेत्र से होता है। ये नदियाँ दक्षिण भारत की नदियों से भिन्न हैं, क्योंकि ये तीव्र गति से अपनी घाटियों को गहरा कर रही हैं।
● उत्तरी भारत की नदियाँ अपरदन से प्राप्त मिट्टी को बहाकर ले जाती हैं तथा मैदानी भागों में जल प्रवाह की गति मंद पड़ने पर मैदानों और समुद्रों में जमा कर देती हैं। इन्हीं नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से उत्तर भारत के विशाल मैदान का निर्माण हुआ है।
● इस क्षेत्र की नदियाँ बारहमासी (Perennial) हैं, क्योंकि ये वर्षण एवं बर्फ पिघलने, दोनों क्रियाओं से जल प्राप्त करती हैं। ये नदियाँ गहरे महाखड्डो (Gorges) से गुजरती हैं, जो हिमालय के उत्थान के साथ-साथ होने वाली अपरदन क्रिया द्वारा निर्मित हैं।
● महाखड्डों के अतिरिक्त, ये नदियाँ अपने पर्वतीय मार्ग में V-आकार की घाटियाँ, क्षिप्रिकाएँ व जलप्रपात भी बनाती हैं। जब ये मैदान में प्रवेश करती हैं, तब निक्षेपणात्मक स्थलाकृतियाँ जैसे- समतल घाटियाँ, गोखुर झीलें, बाढ़कृत मैदान, गुंफित वाहिकाएँ एवं नदी के मुहाने पर डेल्टा का निर्माण करती हैं।
● हिमालय क्षेत्र में इन नदियों का मार्ग टेढ़ा-मेढ़ा है। परन्तु, मैदानी क्षेत्र में इनमें सर्पाकार (Tortous) मार्ग में बहने की प्रवृत्ति पाई जाती है तथा ये नदियाँ अपना मार्ग बदलती रहती हैं।
■ भारतीय नदी प्रणाली——->
● हिमालयी नदी——-> ○ सिन्धु नदी तंत्र ○ गंगा नदी तंत्र ○ ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र
● प्रायद्वीपीय नदी———> a. पश्चिमी घाट में उद्गम——–> कृष्णा नदी, गोदावरी नदी, कावेरी नदी, पेन्नार नदी
b. सह्याद्रि/विंध्य श्रेणी में उद्गम——–> महानदी, नर्मदा नदी, तापी नदी
● कोसी नदी, जिसे बिहार का शोक (Sorrow of Bihar) के नाम से जाना जाता है, अपना मार्ग बदलने के लिए कुख्यात रही है।
● हिमालय से निकलने वाली कुछ नदियाँ हिमालय के उत्थान से भी पहले विद्यमान थीं। जैसे-जैसे हिमालय की पर्वत श्रेणियाँ ऊपर उठती गई, ये नदियाँ अपनी घाटियों को गहरी करती गयीं। परिणामस्वरूप, इन नदियों ने हिमालय की श्रेणियों में बहुत गहरी घाटियाँ या महाखड्ड बना लिए हैं।
● बुंजी (जम्मू-कश्मीर) के पास सिंधु नदी का महाखड्ड 5,200 मी. गहरा है। सतलज और ब्रह्मपुत्र नदियों ने भी ऐसे ही अत्यंत गहरे महाखड्ड बनाए हैं। |
■ हिमालयी पर्वतीय अपवाह तंत्र की उत्पत्ति——–>
● भू-वैज्ञानिक मानते हैं कि, मायोसीन कल्प में (लगभग 2.4 करोड़ से 50 लाख वर्ष पहले) एक विशाल नदी थी, जिसे शिवालिक या इंडो-ब्रह्म नदी कहा गया है।
● यह नदी हिमालय के संपूर्ण अनुदैर्ध्य विस्तार के साथ असम से पंजाब तक बहती थी तथा अंत में निचले पंजाब के पास सिंधु की खाड़ी में अपना जल विसर्जित करती थी।
● शिवालिक पहाड़ियों की असाधारण निरंतरता, इनका सरोवरी उद्गम एवं इनका जलोढ़ निक्षेप से बना होना, जिसमें रेत, मृत्तिका, चिकनी मिट्टी, गोलाश्म व कॉग्लोमेरेट शामिल हैं, इस धारणा की पुष्टि करती हैं।
■ इंडो-ब्रह्म नदी के तीन मुख्य अपवाह तंत्र——->
1. पश्चिम में सिंधु और इसकी पाँच सहायक नदियाँ। 2. मध्य में गंगा और हिमालय से निकलने वाली इसकी सहायक नदियाँ। 3. पूर्व में ब्रह्मपुत्र का भाग व हिमालय से निकलने वाली इसकी सहायक नदियाँ। |
● इस विशाल नदी का उपर्युक्त विभाजन संभवतः प्लीस्टोसीन काल में हिमालय के पश्चिमी भाग में व पोटवार पठार (दिल्ली रिज) के उत्थान के कारण हुआ। यह क्षेत्र सिंधु व गंगा अपवाह तंत्रों के मध्य जल विभाजक बन गया।
● मध्य प्लीस्टोसीन काल में राजमहल की पहाड़ियों और मेघालय पठार के मध्य स्थित माल्दा गैप का अधोक्षेपण हुआ, जिसमें गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी तंत्रों का दिशा परिवर्तन (Diverted) हुआ और वे बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवाहित हुईं।
● हिमालयी अपवाह तंत्र का भूगर्भिक इतिहास एक लम्बे दौर में विकसित हुआ है। इसमें मुख्यतः गंगा, सिंधु व ब्रह्मपुत्र नदी द्रोणियाँ शामिल हैं।
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